आत्म देखभाल / समर्थन

भारत में थेरेपी को लेकर सांस्कृतिक अड़चनें


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि अवसाद की व्यापकता के मामले में दुनियाभर में सबसे ज्यादा अवसादग्रस्त लोग भारत में हैं। यहां 5.6 करोड़ से अधिक लोग अवसादग्रस्त हैं, इसके अलावा 3.8 करोड़ लोग चिंता संबंधी बीमारियों से पीड़ित हैं। इन संख्याओं के गहरे मायने हैं और इस बात की बहुत ज़्यादा संभावना है कि आपका कोई परिचित व्यक्ति भी अवसाद या चिंता से जुड़ी मानसिक बीमारी से पीड़ित हो सकता है।

मानसिक स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच सीमित होने के साथ ही एक और समस्या, जिससे हम भारतीय लोग मानसिक बीमारियों का इलाज तलाशने में संकोच करते हैं, और वह है यहां का सांस्कृतिक पहलू ।

मानसिक बीमारियों से निपटने में परिवार द्वारा मिली सहायता के लाभों के बारे में जितना कहा जाए वह कम है, मगर ऐसी संभावना भी रहती है कि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जानकारी या जागरूकता के बिना एक-दूसरे पर बहुत ज़्यादा निर्भर करने वाले भारतीय परिवारों का सामूहिक ढांचा इस पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

कुछ ऐसे कारण, जिनसे भारतीयों को थेरेपी लेने में संकोच हो सकता है

  • मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भारत में गलत धारणाएं होने के कारण पीड़ित परिवार भी अपने सदस्य की मानसिक बीमारी को एक ऐसी चीज के रूप में देखता है जो परिवार की साख या प्रतिष्ठा को कलंकित करती है। यही कारण है कि, मानसिक बीमारी से जुड़ी बदनामी की वजह से कोई व्यक्ति बाहरी मदद लेने में संकोच करता है, क्योंकि उसे 'कमजोर' या 'मूलतः दोषपूर्ण' की तरह देखा जा सकता है।
  • ऐसे मामलों में ज्यादातर परेशानियों के लिए पीड़ित व्यक्ति के व्यवहार या बाहरी हस्तक्षेप को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, अवसादग्रस्त कोई व्यक्ति अपने रोजमर्रा के कामों से दूर हो सकता है, शादी या अन्य कार्यों में उसकी दिलचस्पी नहीं हो सकती है। इस तथाकथित 'बुरे व्यवहार' के लिए अनुशासन की कमी या पारिवारिक 'मूल्यों' और 'आदर्शों' को जिम्मेदार माना जाता है।
  • कुछ जगहों पर मानसिक बीमारी को भूत-प्रेत की बाधा के रूप में देखा जाता है और इसके लिए मेडिकल सहायता लेने के बजाय आध्यात्मिक सलाहकार, पारंपरिक लोक चिकित्सक और परिवार के बुजुर्ग अपने तरीके से ‘उपचार’ तलाशते हैं। हालांकि यहां धर्म को दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, लेकिन धार्मिक मान्यताओं और मानसिक बीमारियों के बारे में जानकारी और जागरूकता की कमी ही भारतीयों को चिकित्सकीय ​सहायता या थेरेपी लेने से रोकती है।
  • चूंकि भारत में एक-दूसरे पर निर्भर रहने की संस्कृति है और माता-पिता या वयस्कों की चिंता पश्चिमी देशों की तरह परिवार के सदस्य को सिर्फ अठारह वर्ष की आयु तक ही पालन-पोषण किए जाने तक सीमित नहीं है। भारत में माता-पिता अपने वयस्क हो चुके बच्चों और परिवार के अन्य युवाओं के लिए जीवनभर मार्गदर्शक और सलाहकार बने रहते हैं। एक संभावना यह भी है कि यदि बच्चे बाहरी मदद तलाशते हैं, तो माता-पिता असुरक्षित और असहज महसूस करते हैं, क्योंकि पारंपरिक रूप से यहां कोई भी बड़ा निर्णय लेने या समस्या सुलझाने की भूमिका परिवार के बड़े सदस्य ही निभाते हैं। मानसिक स्वास्थ्य भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए, अवसाद या चिंता जैसे विकारों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए विशेषज्ञता और विशेष दखलअंदाजी की आवश्यकता को जरूरी नहीं समझा जाता है।
  • जागरूकता की कमी लोगों में यह विश्वास पैदा करती है कि अवसाद और चिंता जैसी समस्याएं परिवार के वयस्कों की सही सलाह और मार्गदर्शन से दूर हो सकती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि यह समस्या हमेशा उन्मादी लक्षणों के साथ प्रकट नहीं होती है।

अवसाद और चिंता जैसे विकारों के निदान, इलाज और प्रबंधन के लिए पारिवारिक सहयोग के साथ-साथ नैदानिक हस्तक्षेप की जरूरत होती है। इसके लिए कभी-कभी सांस्कृतिक मानदंडों को तोड़ना जरूरी होता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि व्यक्ति को जिस चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता है वह उसे मिले।


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